प्रिय मित्र,
आप सभी को भारतीय नव संवत्सर २०७९ की हार्दिक बधाइयाँ | विगत कई दिनों से सोशल मीडिया पर कुछ मेसेज ऐसे पोस्ट किये जा रहे हैं जैसे कि "लोग अभी २०२२ में पड़े हैं, हम तो २०७९" में आ गए" इत्यादि| निःसंदेह लोगों की भावनाएँ अपनी परंपरा और संस्कृत के प्रति सजग हैं लेकिन पर्याप्त जानकारी के आभाव में हम कहीं न कहीं अपने इतिहास की गरिमा को हो कमतर आंक रहे हैं|
आपको क्या लगता है की भारत में समय की गड़ना या कैलेण्डर २०७९ साल पहले से ही शुरू हुई ? अगर हां तो ये स्वाभाविक भी है| इसमें कोई दोष नहीं है| एक उदाहरण से इसको समझते हैं की ७० सालों में कम्युनिष्टो ने रूस के इतिहास को इतना विकृत कर दिया की आज उनका वास्तविक इतिहास पता करना असंभव है| अब सोचिये हमारी क्या स्थिति होगी जबकि हम तो सदियों से गुलामी की जंजीरो में जकड़े हैं| लगभग पांच शताब्दियों तक हमारी सभ्यता और संस्कृति पर असभ्य और अशिक्षित व्यक्तियों ने आक्रमण किये, हमारे गुरुकुलों को जलाया, आचार्यो की हत्याएँ की, हमारे साहित्य को चुराया और लूटा| महान भारतीय ज्योतिष की तमाम पुस्तकें आज भी योरपियन देशों के पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं| जैसे कि-
१) सोम (चंद्र) सिद्धांत - इस सिद्धांत की हस्तलिखित पुस्तक बर्लिन के पुस्तकालय में (Weber Catalogue No-840) में उपलब्ध है|
२) नारद सिद्धांत- यह ग्रन्थ भारत में उपलब्ध नहीं है लेकिन बर्लिन के पुष्तकालय में (Weber Catalogue No-862) उपलब्ध है|
३) पराशर सिद्धांत- यह पुस्तक मैकन्जी संग्रहालय में (Wilson Catalogue (i) 120) उपलब्ध है|
इसपर भी तसल्ली न होने पर उन्होंने स्वार्थी राजनीतिज्ञों की मदद से हमारे इतिहास की घटनाओ को इच्छानुसार लिखा| अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से ऐसी शिक्षा पद्धति लागू कर दी जिसमे एक पढ़ा लिखा भारतीय केवल एक क्लर्क बनकर रह जाये और अपने नैतिक मूल्यों की कोई परवाह न करे| उसे सिर्फ अपनी भौतिक सुख और सम्बन्धो की चिंता हो| अंग्रेजो का इतिहास सिर्फ ५००० साल पुराना था तो उन्होंने पूरे विश्व के इतिहास को छोटा करने के लिए भारतीय इतिहास को जो कि उनके इतिहास से दस गुने से भी पुराना है, को छोटा करने का कुचक्र किया| साथ ही साथ उन्होंने ऐसे लोगों को आगे बढ़ाया जिन्होंने संस्कृत ग्रंथो का सर्वथा भ्रामक अनुवाद किया और पूरे इतिहास और साहित्य को ही "कल्पित" myth बता दिया| बिडम्बना है कि हम लोग भी उसे उन्ही के रूप में स्वीकार करने लगे|
५८ वर्ष ईसा पूर्व में उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य ने खगोलविद ज्योतिषाचार्यो की सहायता से हिन्दू पंचांग पर आधारित कैलेंडर विकसित करवाया जिसे विक्रिमी संवत या संवत्सर कहते हैं| अब प्रश्न यह उठता है कि क्या खगोल शास्त्र और ज्योतिष उससे पहले भारत में थे ही नहीं ?
कलियुग के प्रारम्भ के समय "कलियुग संबत" भी ३१०२ ईसा पूर्व शुरू हुआ था| विक्रमी सम्वत से पूर्व भारत में ६६७६ ईसापूर्व में शुरू हुए प्राचीन "सप्तर्षि सम्वत चलता था"| भगवान कृष्ण के जन्म के साथ "कृष्ण सम्वत" भी प्रयोग में था| हमारे देश में प्राचीन काल से चैत्र मास की प्रतिपदा तिथि से नवरात्रि का शुभ समय दुर्गा पूजन से असीमित ऊर्जा लेकर आता था| इसी दिन से मेष राशि की शुरुआत होती थी | राजा रामचद्र और युधिष्ठिर का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ था| व्यापार में बही खाते की शुरुआत इसी दिन से होती थी |
वर्तमान में विक्रमी सम्वत की शुरुआत को ही पूरे भारत में अलग अलग नामों से जाना जाता है और त्यौहार के रूप में मनाते हैं जैसे कि महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, आंध्र में उगादिनाम, जम्मू-कश्मीर में नवरेह, पंजाब में वैशाखी, सिंध में चेटीचंड, केरल में विशु, असम में रोगलीविहू इत्यादि| ईरान में नौरोज के समय नववर्ष इसी दिन प्रारम्भ होता है|
भारत सदियों से खगोल शास्त्र का केंद्र रहा है इसके प्रमाण हमें हमारे वेदों के समय से मिलते हैं| खगोल शास्त्र की प्रामाणिक विधियों से अगर आप भारतीय ज्योतिष के इतिहास है पता लगाएंगे तो आपको आश्चर्य होगा की हमारा इतिहास लगभग २५,९२० वर्ष ईसा पूर्व है| इसको सामान्य अर्थ में आप ऐसे समझ सकते हैं कि सम्पात विन्दु (वह स्थान जहां पर विषुवत वृत्त, क्रांति वृत्त को काटता है, इसे मेष वृत्त भी कहते हैं) यह हर साल ५०.३' पीछे खिसक रहा है| इस तरह से यह बिंदु ७२ सालों में १ डिग्री और ९६० सालों में एक नक्षत्र (13. २ डिग्री) और २१६० वर्ष में एक राशि यानि ३० डिग्री पीछे चला जाता है|
पूना के डॉक्टर पद्माकर विष्णु वर्कट के अनुसार ऋग्वेद में वर्णित है कि वर्षा ऋतू उस समय आरम्भ होती थी जब सूर्य मृगशिरा नक्षत्र में होता था | आज भी लगभग वही समय चल रहा है इससे आप सहज अनुमान लगा सकते है कि ऋग्वेद का काल २५९२० वर्ष ईसापूर्व रहा होगा (९६० वर्षX २७ नक्षत्र)| पुराणों में वर्णित ग्रह दशा से आप रामायण और महाभारत काल को लगभग ७३२३ और ५५६१ वर्ष पूर्व रही होगी|
भारतीय ऋषि मुनियों की विश्व को देन
भारतीय ज्योतिष का वैदिक काल २३,९२७ से ८३५० ईसा पूर्व माना जाता है| ऋग्वेद मे ३६ श्लोक, यजुर्वेद में ४४ और अथर्वेद में १६२ श्लोक मिलते हैं जिससे ये ज्ञात होता है कि ग्रह, कुंडली भाव इत्यादि की जानकारी थी|
८३५० से ३००० ईसा पूर्व को ज्योतिष का पौराणिक काल कहते हैं जिसमे १८ ऋषि मुनियों ने सिद्धांत (नक्षत्र विज्ञानं और गणित ज्योतिष), होरा (जन्म कुंडली), संहिता (मुंडेन, अंतरिक्ष विद्या और ऋतू ज्योतिष) का प्रतिपादन किया| इन ऋषियों में सूर्य, पितामह, वशिष्ठ, अत्रि, परासर, कश्यप, नारद, गर्ग, मारीच, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, चयवन, व्यास, यावन, भृगु और शौनक प्रमुख हैं|
३००० से ५७ ईसा पूर्व को भारतीय ज्योतिष का पाराशरी काल कहा जाता है| इसी समय को कलियुग का आरम्भ भी कहते हैं| वृहत पराशर होरा शास्त्र इस समय की काल जयी रचना है| इस काल के अन्य प्रमुख ज्योतिषी थे जैमिनी, गर्ग और सत्याचार्य|
५७ ईसा पूर्व से १९०० तक के काल को वाराह मिहिर काल कहा जाता है| वृहत जातक इस समय का प्रमुख ग्रन्थ है|
१९०१ के बाद के काल को शिक्षक काल कहा जाता है| इस समय के प्रमुख विद्वान कल्याण वर्मा-५७८ ई, वैद्यनाथ और नारायण भट्ट -१४वीं शताब्दी, वेंकटेश्वर शर्मा, ढुंढिराज, मंत्रेस्वर, नीलकंठ -१६वीं शताब्दी, गणेश दैवज्ञ, महादेवजी पाठक, श्री सूर्य नारायण राव, राम दयालु , पंडित महेश और रामवीर -१९वीं शताब्दी|
डॉ बी बी रमन (१९१२-१९९८) ने अंग्रेजी में अनेकों पुष्टकेँ लिखी और ज्योतिष शास्त्र में लोगों को शिक्षित करने के लिए अखिल भारतीय ज्योतिर्विज्ञान संसथान की स्थापना की| सही अर्थों में यह प्रयास इस दिव्य विद्या को विशिष्ट परिवारों से निकाल कर आम जनमानस के लिए उपलब्ध कराने जैसा था | श्री आर्यभूषण शुक्ला ( रिटायर्ड आईएएस) अभी इस संस्था के अध्यक्ष हैं| इन्होने अपनी योग विद्या और आध्यात्मिक ज्योतिष से प्रकृति के रहस्यों पर आधारित पुस्तक "समय घटना और पद्धति" लिखी| इस पुस्तक में किस घटना के घटने या न घटने से सम्बंधित प्रकृति के संकेतो को समझाया गया है| इस संसथान में आज देश भर में सैकड़ों योग्य गुरुजन हजारों विद्यार्थियों को ज्योतिष की वैज्ञानिक विधि से शिक्षा दे रहे हैं|
अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं - https://www.icasindia.org/
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपको, अपनी वैभवशाली सांस्कृतिक विरासत के बारे में जानकर बहुत ही अच्छा लगा होगा| आज फिर से सोचने की जरुरत है की वह कौन सा ज्ञान था जिसके लिए दुनिया भारत को उस समय से विश्व गुरु मानती थी जब आज के बनावटी नेता नहीं थे| आखिर तमाम विदेशी यात्री भारत के आश्रमों में क्या ढूढने आते हैं| तमाम विदेशी विद्यार्थी गुरुकुलों में आकर प्राचीन भारतीय पुस्तकों में क्या खगालते थे| कुछ तो रहा होगा जो उन्होंने हमारी पुस्तके अपने देश उठा ले गए|
बहुत विकाश करते करते दुनिया विनाश के मोड़ पर आ खड़ी हुई है| भारत का आध्यात्मिक ज्ञान ही इसको मानवता, प्रेम और शांति सीखा सकता है| लोगों को जीवन का वास्तविक उद्देश्य यहीं समझ में आ सकता है| आइये इस दिशा में मिलकर अनुसन्धान करते हैं|
आप सभी को नव संवत्सर की फिर से एक बार बधाइयाँ| इस दिन को आप अपने तरीके से मनाएं और अपने पूर्वज ऋषि मुनियों और गुरु के प्रति कृतज्ञ बने|
समस्त लोकाः सुखिनो भवन्तुः
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