पिछले लेख में आपने देखा कि कुंडली के मुख्य ग्रह कौन से होते हैं जो जीवन की दिशा तय करते हैं या कहिये जिनके हाँथ में सफलता की कुंजी होती है| साथ में ज्योतिष फल कथन के कुछ सूत्र भी उद्धित हैं| भारतीय ज्योर्तिष की महान परम्परा में हमने देखा की राशियां कौन कौन सी होती हैं और उनके स्वामी कौन से ग्रह होते हैं| उसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम भारतीय ज्योतिष शाश्त्र को थोड़ा गहराई में समझने की कोशिश करेंगे|
ज्योतिष में फलकथन के प्रारंभिक नियम
कुछ इस तरह हैं|
१) भाव का अध्ययन करें| इसमें भाव में
स्थित राशि, भाव में स्थित ग्रह और भाव पर पड़ने वाले ग्रहों की दृष्टियों का अध्ययन
किया जाता है|
२) भावेश की कुंडली में स्थिति देखी
जाती है| इस परिक्रिया में भावेश जिस भाव में स्थित है उसके भावपति और उसके संबंधों
का प्रभाव देखा जाता है|
३) इसी तरह से कारक ग्रह की स्थिति का
अध्ययन किया जाता है|
अब प्रश्न उठता है कि भाव, भावेश और
कारक किसे कहते हैं? आइये इसको सरल अर्थों में उदाहरण के साथ समझते हैं|
भाव, भावेश और भाव कारक
जैसे की हम जानते हैं की कुंडली में
१२ भाव होते हैं| ये भाव जीवन के अलग अलग हिस्से होते हैं| पहले भाव को तन भाव कहा
जाता है| यही भाव है जिसमे मनुष्य जन्म लेता है या यूँ कहे उसकी आत्मा पूर्व जन्म के
अपूर्ण कर्म को पूरा करने के लिए, माध्यम के तौर पर किसी शरीर का वरण करती है| इस लिए
इस भाव को तन भाव या आत्मा का भाव भी कहते हैं| भाव में लिखी संख्या को राशि कहते हैं| सभी राशियों के अपने गुण धर्म होते हैं| राशि एक तरह से उस भाव की परिस्थिति या माहौल की
अनुकूलता का आभास कराती है| भाव में स्थित राशि के स्वामी को भावेश कहते हैं| उस भाव
से सम्बंधित फल को प्रदान करना उस भावेश का काम होता है| इसी तरह से हर भाव के अपने
कार्यकत्व हैं| तालिका संख्या -१ में आप किसी भी विषय से सम्बंधित भाव या भाव से सम्बंधित
विषय को समझ सकते हैं|
हर भाव के अपने कारक ग्रह होते हैं जिन्हे उनका नैसर्गिक कारक कहा जाता है| यहाँ कारक उन ग्रहों को कहते हैं जो उस भाव से सम्बंधित फल देते हैं| ये कारक ग्रह कुंडली में कहीं भी स्थित होते हुए भी अपनी दशा अन्तर्दशा में अपने स्थिति और बल अनुसार नैसर्गिक कार्यकत्व से सम्बंधित फल देने में सक्षम होते हैं| तालिका संख्या-१ में हर भाव से सम्बंधित कारक ग्रह का उल्लेख किया गया है|
ग्रहों के कार्यकत्व
जिस तरह से हमने देखा की किसी भी विषय वस्तु को उसके भाव के कार्यकत्व से कुंडली में देखा जाता है, उसी तरह से उस विषयवस्तु को उनके नैसर्गिक कारक ग्रहों की स्थिति से भी देखा जाता है| हर ग्रह के अपने नैसर्गिक कार्यकत्व हैं| उदहारण के तौर पर गुरु को शिक्षा का कारक ग्रह माना जाता है| अगर गुरु कुंडली में अच्छी स्थिति में है तो जातक परा विद्या अर्जित करता है और विद्वता को प्राप्त करता है| राशियों की तरह ग्रहों के अपने गुण धर्म होते हैं| विभिन्न ग्रहों के मुख्य कार्यकत्वों को तालिका संख्या-२ में निम्नवत दिया गया है|आइये इस परिक्रिया को एक उदाहरण से समझते हैं|
कुंडली के प्रथम भाव "लग्न"
को जातक के स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिए देखा जाता है| उसके स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिए के लिए लग्न, लग्नेश और सूर्य का विश्लेषण करते हैं| चूँकि स्वास्थ्य पर मन का भी प्रभाव रहता ही है इस लिए चन्द्रमा की स्थिति भी देखी जाती है|
१) यदि चारों ही उत्तम स्थिति में हैं, सौम्य ग्रहों से दृष्ट हैं तो जातक का स्वास्थ्य ठीक रहेगा|
२) यदि उनमे कोई एक पीड़ित होता हो तो कुछ समस्याएं हो सकती हैं|
३) यदि इनमे से दो पीड़ित हों तो जातक का स्वास्थ्य ख़राब होगा|
४) यदि तीनो ही पीड़ित हैं तो जातक कष्ट में होगा या रोगी होगा |
५) यदि चारों ही पीड़ित हों तो स्वास्थ्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है|
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