वर्षाऋतु : चालीस साल पहले और अब

वर्षाऋतु : चालीस साल पहले और अब




वैसे तो सभी ऋतुओ का हमारे जीवन में महत्व है लेकिन वर्षा ऋतु: का महत्व कुछ अलग ही है। सिर्फ इसलिए नहीं की इससे धरती पर स्थित सभी बनस्पतियो को नया जीवन मिलता है।  धरती शस्य श्यामला हो जाती है। हरे रंग की चादर में लिपटी प्रकृति अपने नए वैभव को प्राप्त करती है।  दूर दराज से उमड़ते घुमड़ते मेघ, चमकती बिजलियाँ , दूर तक आवाज करते नदी और नाले के बीच में भी जीवन की कश्ती को चलते नाविक एक इतिहास लिखते हैं बल्कि वो जीवन के सत्य और सनातन होने की परिकल्पना को साकार करते दिखते हैं।

अगर आज से कोई चालीस साल पहले की बात करे जब हम बच्चे थे तो जीवन काफी अलग था।  जबरदस्त गर्मी में आम की फसल, तेज चलती लू में भी बेपरवाह जीवन, घंटो नदी में नहाते बच्चे बड़े और बुजुर्गो के झुण्ड।  सीधे पेड़ से पककर गिरे हुए आम के फल, हर पेड़ के अलग नाम और हर पेड़ के फल का अलग स्वाद अनेकता में एकता की सन्देश देते थे।  पके आम की मिठास तो बरसात के बाद ही आती थी।

जब उमस बहुत बढ़ जाती थी तो बुजुर्ग लोग समझ जाते थे कि मृगशिरा नक्षत्र  लग गया हैं और जल्दी ही मेघ बनने शुरू हो जायेंगे।  प्रकृति के साथ इतना विश्वास का जीवन।  फिर बादलो का इंतजार करती बेचैन आंखे।  इतनी गर्मी में भी कभी कभी चोरी के डर से घर के आँगन में सोते हुए महिलाये और बच्चे। अगर कभी बादलों के आने में देरी हुई तो कालकलावती  खेलते और लोकगीत गाते बच्चो के झुण्ड  और बरसात के लिए भगवान् से प्रार्थना करते और रामचरित मानस का पाठ  करते ग्रामवासी। वर्षा के प्रति लोगों का भाव कवियों ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है| 

धरा पुकारे मेघा आ रे, आ रे,

मन की प्यास बुझा जा रे

प्यासे मेरे पेड़ और पौधे

सबको जीवन दे जा रे

धरा पुकारे मेघा आ रे, आ रे......

सूख गए मेरे ताल तलैया

मेढक मछली खतरे में

न जाने कितने जीव हैं तड़पे

सबको जीवन दे जा रे

धरा पुकारे मेघा आ रे, आ रे......

बचपन का वह प्रण न भूलें 

फिर से आओ झूला झूलें

जीवन के रस के तुम रक्षक

यह आभास करा जा रे 

धरा पुकारे मेघा आ रे, आ रे......

यूं आते हो लड़ते भिड़ते

जैसे तुमने सुन ली बात

पर चुपके से चले गए तुम

यह करता कितना आघात

यह नादानी छोड़ सखा तुम

प्यार का रस बरसा जा रे 

धरा पुकारे मेघा आ रे, आ रे......



फिर शुरू होता बादलों का कौतूहल।  अचानक से काली होती घटायें फिर बिजली की तेज चकाचौध | तरह तरह के बादल जैसे की काळा बादल भूरे बादल कभी बादलों के बीच से निकली सूर्य की तेज किरणे।  तेज बरसात निकल जाने के बाद एक दो दिन तक बहता पानी और उसमे कागज की कश्ती चलाते छोटे बच्चे। कभी कभी ज्यादा बरसात हो जाने से गिरते हुए कच्चे घरो से आती आवाजे। तमाम सारे तालाबों गड्ढो और निचले खेतो में भरा पानी बरबस मन को मोह लेता था। अलग अलग नक्षत्रो से अलग अलग बरसात की उम्मीद।  जैसे मघा नक्षत्र राजा माना जाता था मतलब जबरदस्त बारिश।  उत्तरा में लगता था भगवन इंद्र स्वर्ग का राज्य छोड़कर धरती पर आ गए हों।  अश्विन के महीने में धीरे धीरे कई दिन तक चलने वाली बारिश एक अलग तरह का आनंद देती थी।

इसके साथ शुरू होता जीवन का चक्र,  धरती का बदलता आवरण सफ़ेद या भूरे रंग से हरे रंग में बदलने का एक क्रम।  घर के बड़े लोगो का खेती के कामों में व्यस्त हो जाना।  जैसे ही आम की फसल कम हुई वैसे ही जामुन का अपने वैभव में आ जाना अपना एक अलग अनुभव रहता था।

इसी बीच आम और जामुन के फलदार पौधों को लगाते बुजुर्ग एक नयी शिक्षा देते थे।  इन्ही से प्रेरणा लेकर हमने भी १०-१२ आम के पेड़ लगा दिए थे।  हालाँकि दो बार आग लगने से कई पेड़ खत्म हो गए लेकिन तीन पेड़ हैं और पिछले दसियो साल से फल देते हैं।  जब भी घर जाना होता हैं, कितना भी व्यस्त कार्यक्रम हो, एक बार जाकर पूरे बाग में टहलना,अपने बचपन को फिर से याद करने का एक अवसर होता हैं।

सन १९८० में तो एक बार इतनी बाढ़ आयी थी की हमारे पूरे ग्राम में पानी भर गया था।  कई घर गिर गए थे। पशुओ को चारे की समस्या हो गयी थी फिर भी सारी दिक्कतों को झेलता इंसान बिना किसी शिकायत के उन्ही के बीच से जीवन को आगे बढ़ाते हुए।  जिधर देखिये उधर पानी कई गावो के लोग भागकर हमारे ग्राम में आ गए थे।  हर समय हर हर करती नदी की धारा, बहुत सारे पेड़ो को बिना दर्द के उखाड़ती सई नदी।  जगह जगह भगवान से स्थिति को सामान्य करने की प्रार्थना करते ग्रामीण जन।

उस समय फेसबुक और व्हाट्सप नहीं था लोग असली जीवन जीते थे।  बहुत सारे कवियों ने वर्षा ऋतू के ऊपर न जाने कितनी कविताये बना डाली हैं।  आचार्य तुलसीदास ने भी वर्षा ऋतू को श्रीराम चरित मानस में किष्किंधा कांड  में पूरा सम्मान दिया हैं।



आज भी वर्षा ऋतु: आती हैं लेकिन प्रकृति के साथ वह अपनापन और जुड़ाव नहीं महसूस होता।  सर्वप्रथम बहुत कम ही ऐसा होता हैं की बरसात को देखने का मौका मिले।  दिन में ऑफिस में होने पर पता ही नहीं चलता बाद में पता लगने पर ट्रैफिक जाम का डर भी बन जाता हैं।  उस पर भी हमारी सरकारी मशीनरी जो पुरे साल व्यस्त रहती हैं वह बरसात में ही गड्ढे खोदना नाली बनाने का काम शुरू करती हैं।  जलबोर्ड भी कई जगह गड्ढे खोदकर लोगो के जीवन को गति प्रदान  करने में कोई कसर नहीं छोड़ता हैं।

इतने सारे बदलावों के बीच में कोरोना महामारी का बढ़ता हुआ प्रकोप और इन दिक्कतों से लोगो का ध्यान बताने के लिए तमाम राजनैतिक हथकंडे एक नए जीवन का आभास कराते हैं।  गर्मी और उमस से बचने के लिए दिन रात चलते एयर कंडीशनर गर्मी में ठंडी का एहसास कराते हैं।  फिर बिजली के मोटे मोटे बिल हमें अपने जीवन की परतंत्रता का एहसास करने में जरा भी देर नहीं करते।

कोरोना की फैलती हुई बीमारी ने लोगो से मिलना जुलना भी बंद कर दिया हैं। अपने ही घर में बैठकर टीवी और मोबाइल में कैद जीवन सभी को आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के दौर में पूरा आर्टिफीसियल लाइफ का आभास कराते हैं। मन तो कभी कभी यही कहता हैं कि ......मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी |

आइये इस कैद जिंदगी से अपने आप को बाहर निकाले अपने लोगो से मिले, लेकिन फिजिकल डिस्टन्सिंग को रखते हुऐ।  अपने पार्को में कुछ पौधे लगाए।  जोकि इस ग्रीन एन्वॉयरमेंट के पेज पर आपके हस्ताक्षर की तरह होंगे।  कल यही हमारा छोटा सा प्रयाश एक नयी हरियाली कि तस्वीर बनेगी।  अतः सभी से अनुरोध हैं कि इस बरसात में कमसे काम एक पेड़ जरूर लगाएं।

धन्यवाद्

Please read our following article too
Love Blossoms in Rain

Post a Comment

1 Comments

Please do not enter any spam links in the box